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हम ईश्वर को दूसरी दुनिया का जीव मानते हैं ,और कल्पना करते हैं की इस नाम का कोई जीव कहीं किसी लोक में रहता है जब हम उसे बुलाते हैं तो वह आता है और हमारी सहायता ,हमारे काम करता है |यह धारणा पूरी तरह एक भ्रम मात्र है |जिस रूप में आप कल्पना करते हैं उस रूप का कोई देवता -ईश्वर संसार के किसी लोक में नहीं रहता |यह चित्र आदि काल्पनिक हैं जो हमने बनाए हैं |ईश्वर को मनुष्य रूप में हमने कल्पित किया है ,उसे मुकुट और हथियार हमने दिए हैं |ईश्वर का कोई रूप नहीं ,उसका कोई आकार नहीं ,वह तो ऊर्जा है ,शक्ति है ,जो सर्वत्र व्याप्त है |कहीं किसी गुण की शक्ति का संघनन अधिक होता है अर्थात वहां उस शक्ति की ऊर्जा की मात्रा अधिक होती है तो कहीं कम होती है |जहाँ जिस ऊर्जा की अधिकता होती है वहां उसकी वैसी मूर्ती अनुसार कल्पना करके शक्तिपीठ स्थापित किये गए |मंदिर बनाए गए |यह सब वहां उत्पन्न होने वाली अथवा संघनित ऊर्जा के कारण है |स्वरुप कल्पना उसके गुणों के आधार पर मनुष्यों ने की है |ईश्वर अथवा देवी-देवता तो चराचर प्राणियों और वनस्पतियों के हैं ,सब में व्याप्त हैं ,कण कण में बिखरे हैं |
अवतार अथवा ईश्वर का अवतरित होना अथवा प्रत्यक्षीकरण भी ऊर्जा विशेष का संघनन है |अवतार विशेष में विशेष गुण होते हैं जो उसमे विशेष शक्ति और ऊर्जा के संगठित रूप के कारण होते हैं |लगभग हर अवतार अपवादों को छोड़ दें तो जन्म लेता है उसके बाद वह कार्य विशेष करता है ,और एक निश्चित आयु तक ही करता है ,हमेशा नहीं |ऐसा उसमे ऊर्जा विशेष की कार्य विशेष के अनुसार एकत्रता के करण होता है |कार्य पूर्ण हुआ ,ऊर्जा कम हो गई |अर्थात ईश्वर आया किसी में जन्म से ही अथवा यौवन में या वृद्धावस्था में ,कार्य पूर्ण किया और अपनी मात्रा कम कर दी व्यक्ति विशेष से |अर्थात ईश्वर ने व्यक्ति को माध्यम बनाया या व्यक्ति ने ईश्वर को माध्यम बनाया कार्य विशेष की पूर्णता के लिए |सीधा सा अर्थ है वह जन्म खुद नहीं लेता वह माध्यम बनता है व्यक्ति को और उसमे अवतरित होता है |कभी ऐसा भी होता है की व्यक्ति ईश्वर को माध्यम बनाता है और खुद में उसे लाता है अपनी योग अथवा साधना बल से |दोनों स्थितियां लगभग सामान है |अवतार के पीछे भी कुछ लोगों के साधना बल होते हैं की किसी में ईश्वर आता है ,इसी प्रकार साधक भी ईश्वर को खुद में लाता है |अर्थात व्यक्ति में ही ईश्वर आता है ,व्यक्ति ही माध्यम बनता है ,व्यक्ति ही क्रियाएं ईश्वर की शक्ति से करता है |ईश्वर तो केवल उसकी क्षमताएं बढ़ा देता है |आप भी खुद में इश्वर को ला सकते हैं , जब वह आपमें आएगा तो आप ईश्वर सदृश होंगे अर्थात आप ईश्वर होंगे |आपमें अपने ईष्ट के गुणों के अनुसार गुण विकसित होंगे ,आपकी क्षमताएं बढ़ जाएँगी ,आपसे लोगों को लाभ होगा ,उनका कल्याण होगा ,उनके कष्ट कम होंगे और आप अवतारी पुरुष घोषित होने लगेंगे |आपने अपनी साधना से शक्ति पाई पर लोगों के लिए आप अवतार हो जायेंगे ईश्वर के क्योंकि लोग तो मान ही नहीं सकते की ईश्वर मनुष्य में भी आ सकता है भले हजारों उदाहरण उपलब्ध हों |
अगर कोई साधक चाहे तो खुद में ईश्वर ला सकता है |ऐसा होता भी है |तो क्या वह व्यक्ति ईश्वर नहीं हुआ |इसीलिए तो कहा जाता है की हर व्यक्ति में ईश्वर है |क्यों क्योकि उस ऊर्जा की मात्रा सबमे हैं ,किसी में कम किसी में अधिक ,पर है सबमे ,यहाँ तक की जीव जंतु ,वनस्पतियों में भी |किसी ईश्वर की काल्पनिक मूर्ती ईश्वर के गुणों के अनुरूप बनाई जाती है |उसी के अनुरूप उसके मंत्र होते हैं |उसी के अनुरूप खुद बनने पर ही वह शक्ति आपमें आती है |गुरु परंपरा में बाबा कीनाराम ,तैलंग स्वामी ,देवरह बाबा ,दत्तात्रेय भगवान् ,साधकों के गुरु आदि सभी ईश्वर रूप होते हैं और यह प्राप्त भी होते हैं साधकों को |जो साधक अपने को इनके अनुरूप ,इनके प्रेम में प्रेममय करता है उसे ये मिलते भी हैं |यही हाल सभी ईश्वरों की है |कोई भी ईश्वर साकार रूप न लेकर व्यक्ति में ही अवतरित होता है |आप देखिये परसुराम ,हनुमान आदि चिरंजीवी हैं ,किन्तु इनके अधिकतर कार्य एक निश्चित काल खंड तक हैं ,बाद में इन्होने मार्गदर्शन ही किया है खुद बहुत कम क्रियाशील रहे |यह उदाहरण है खुद को ईश्वर सदृश बनाकर दीर्घायु का ,किन्तु आवश्यक ऊर्जा उसी काल खंड में इनमे अधिक रही जब उसकी इन्हें आवश्यकता रही |इसी तरह व्यक्ति खुद में ईश्वर ला सकता है |खुद को ईश्वर सदृश बना सकता है और तब वह ईश्वर होता है |किसी काल्पनिक पात्र को केवल चित्र में पूजते जाना मूर्खता है ,उसके सदृश खुद को बनाना और उसके गुणों का खुद में विकास ही उसे आपके पास लाता है और आपमें उसे समाहित करता है |
साधना की पूर्णता ईश्वर ,देवी -देवता या ईष्ट के दर्शन या प्राप्ति में नहीं होती ,अपितु स्वयं ईश्वर बनने में होती है |दर्शन या प्राप्ति से मोक्ष नहीं मुक्ति होती है ,जबकि उद्देश्य मोक्ष होना चाहिए |यह खुद ईश्वर बनने पर ही संभव है |ईश कहते हैं स्वामी अर्थात मालिक को ,और वर कहते हैं श्रेष्ट को |ईश-वर अर्थात श्रेष्ठ मालिक |श्रेष्ठ मालिक वह है जो अपनी इन्द्रियों का मालिक हो और उन्हें उनके उचित कर्त्तव्य कर्म में प्रवृत्त करे |इस प्रकार व्यक्ति ही अपनी इन्द्रियों का स्वामी हो जाने पर इन्द्रियों को वश में कर लेने पर ईश्वर बनने लगता है |प्रत्येक व्यक्ति को ईश्वर बनने का लक्ष्य रखना है |हमारा कुंडलिनी विज्ञान एक अद्भुत रहस्य का उदघाटन करता है ,की देवता बनकर देवता को पूजो |ईश्वर को पाने के लिए पहले स्वयं ईश्वर बनो |जिस स्तर की शक्ति को पाना चाहते हो ,पहले स्वयं उस स्तर की क्षमता को प्राप्त करो |बिना ईश्वर बने ईश्वर की बातें करना दर्शन का ऐसा वाद विवाद है जो जीवन को सुलझाने की बजाय उलझाता है |मुक्ति के स्थान पर बंधन में जकड़ता है और बहुत से स्थलों पर व्यक्ति को अपने उद्देश्य के प्रति उदासीन बनाता है |मजे की बात तो यह है की इस उदासीनता के रोग को वह व्यक्ति वैराग्य अवस्था की उच्चतर स्थिति समझ कर अपने को संतुष्टि देता है |ऐसा उदास रोगी व्यक्ति समाज के प्रति तो अक्षम्य अपराध करता ही है ,अपने शरीर के प्रति भी वह लापरवाह बना रहता है |वह भूल जाता है की “शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम “[शरीर ही धर्म का साधन है ]|यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है की जो व्यक्ति अपने शरीर को स्वस्थ और सुंदर रखने का प्रयत्न करेगा वही शरीर के उपयोग में आनेवाली वस्तुओं और शरीर से सम्बंधित व्यक्तियों का ध्यान रखेगा |जो अपने सम्बन्धियों का ध्यान रखना सीख जाएगा वही समाज का ध्यान रख सकेगा |ऐसा समाज सेवक ही अच्छा देश सेवक बनता है और कई देश मिलकर ही विश्व शक्ति का निर्माण करते हैं |
सम्पूर्ण प्रकृति शक्ति जिसे हम पर-परात्पर शक्ति भी कहते हैं ,उसके अनुपात में विश्व शक्ति मात्र एक ईकाई है |सम्पूर्ण पृथ्वी की संचालक शक्ति एक ईकाई है |इतनी महान शक्ति के स्तर तक पहुचने की बात ,ऐसा उदासीन ,भगवान् के नाम पर बिना काम किये खाने वाला व्यक्ति करे जो भाग्य के भरोसे अकर्मण्य बैठा रहता हो ,परन्तु बातें बड़ी बड़ी और ऊँचे दर्शनों की करता हो ,वह क्रिया व्यवहार में सन्निपात में बक झक करने वाले रोगी के तुल्य ही माना जाएगा |यह हमारा दुर्भाग्य है की वर्तमान में ऐसे ही सन्निपात ग्रस्त लोगों का बाहुल्य है जो स्वयं नहीं समझते की जो उन्होंने कहा है उसका क्रियात्मक अर्थ क्या है |बातें ईश्वर की करते हैं किन्तु उस ईश्वर जैसा एक भी आचरण खुद में नहीं लाते |नशे जैसी आँखे किये प्रवचन गीता ,भागवत ,रामायण ,कर्म की करते हैं किन्तु खुद कोई कर्म नहीं करते |जो खुद उदासीन हो वह क्या कर्म को प्रेरित कर पायेगा |जो खुद में ईश्वर के गुण न ला सके वह क्या धर्म को आगे बढ़ाएगा और क्या आदर्श रखेगा |किन्तु मूर्खता देखिये की इन्हें आदर्श मानने वालों और इनके प्रवचन सुनने वालों की भीड़ रहती है |खुद में ईश्वर लाने ,खुद को ईश्वर सदृश बनाने ,खुद को राम -कृष्ण बनाने की बजाय लोगों को उनकी कथा -कहानी -काल्पनिक मनगढ़ंत कहानियाँ सुनने में आनंद आता है ,क्योकि वाणी विलास से मनोरंजन होता है ,कुछ करना नहीं होता |
इन्ही सब कारणों से वास्तविक साधक,सन्यासी ,साधू इन मूर्खताओं से दूर रहता है |वह जानता है की ईश्वर की कहानी सुनने से नहीं खुद को ईश्वर सदृश और ईश्वर बनाने से कल्याण होता है |ईश्वर के गुण खुद में लाने पर ही ईश्वर की ऊर्जा आकर्षित होगी और आपमें आ पायेगा |उसकी ऊर्जा से मेल न हो शरीर की ऊर्जा का ,आपमें उसके अनुरूप गुण न हो ,शक्ति न हो तो वह न तो आएगी न समाहित होएगी |आ भी गई तो आप संभाल नहीं दे पायेंगे और या तो बिखर जायेगी या आपको बिखेर देगी |शायद आपको ज्ञात न हो किन्तु आपके पूर्वज आर्य मूर्ती पूजक नहीं थे परन्तु सीधे इश्वर से बाते करते थे ,स्वर्ग आते जाते थे ,वेदों की रचना की ,उपनिषद् लिखे ,ब्रह्माण्ड के वह सूत्र लिख गए ,सारे रहस्य बता गए जहाँ शायद आज का विज्ञानं भी हजारों वर्ष बाद पहुंचे या न ही पहुँच पाए ,पर उन्होंने लाखों वर्ष पहले ही आप को बता दिया |आज भी पहाड़ों ,गुफाओं ,श्मशानों ,जंगलों में रहने वाले साधू ,सन्यासी साधक के पास मूर्ती ,चित्र नहीं होते पर शक्ति और सिद्धि उनमें ही अधिक होती है क्यों ,क्योंकि वह खुद को साधते हैं की इश्वर उनमे आये ,वह ईश्वर सदृश बने |
हम साकार मूर्ती ,चित्र आदि की कल्पना इसलिए करते हैं की हमारे विचारों को एक आधार मिले ,हममें एक विशेष भाव उत्पन्न हो जिससे उस भाव का चक्र क्रियाशील हो और वैसी उर्जा ब्रह्माण्ड से आकर हमसे जुडे.और शक्ति प्राप्त हो |मूल उद्देश्य होता है खुद में उर्जा को लाना और खुद को वैसा बनाना |यही उद्देश्य था चित्र ,मूर्ती कल्पना का पर हम काल्पनिक कहानियों में भटक गए ,दुर्गा कौन ,काली कौन ,राम कौन ,विष्णु कौन ,शिव कौन ,शंकर कौन ,ब्रह्म कौन ,ॐ क्या ,यह होते कहाँ हैं ,शरीर और चक्रों से क्या सम्बन्ध है ,इनकी कहानियों का वास्तविक अर्थ क्या है ,क्या सूत्र हैं हमने सोचा नहीं ,किसी ने कहा तो माना नहीं बस काल्पनिक कथाओं या समझाने के लिए बनाई गयी व्याख्याओ और उदाहरण को ही सच मान गोते लगाते रहे ,पार उतरने का उद्देश्य भूल अंत में डूब गये |तो मित्रों अब भी सम्भलो और खुद में इश्वर लाओ ,खुद को ईश्वर सदृश बनाओ ,वास्तविक कल्याण तभी होगा और आप ऐसा कर सकते हैं |[ प्रस्तुत लेख हमारे पेजों ,ग्रुपों और यू ट्यूब चैनल – Alaukik Shaktiya पर पूर्व प्रकाशित है अतः अपने नाम से कापी पेस्ट किया जाना आपके समान को ठेस लगा सकता है -पंडित -जितेन्द्र मिश्र ]………………………………………………………………………हर-हर महादेव
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